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सलमान खान हो सकते हैं 'रेस 3' के खलनायक






सलमान खान की सुपरहिट फिल्म 'सुल्तान' के निर्देशक अली अब्बास जफर जल्द सलमान खान को अपनी अगली स्क्रिप्ट सुनाएंगे. चर्चा है सुपरहिट 'रेस' के तीसरे पार्ट में सलमान खान, खलनायक की भूमिका निभा सकते हैं.
'रेस' के दोनों पार्ट में हीरो सैफ अली खान रहे हैं, तो देखने दिलचस्प होगा अगर सलमान खलनायक की भूमिका के लिए हामी भर देते हैं. ये पहली बार होगा जब सलमान नेगिटिव रोल करेंगे.




फिलहाल अली अब्बास जफर टाइगर के सीक्वल 'टाइगर जिंदा है' पर काम कर रहे हैं, लेकिन उम्मीद इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि 'सुल्तान ' के बाद अली अब्बास सलमान के चहेते निर्देशकों में से एक हैं. 'रेस' सीरीज के निर्माता रमेश तोरानी हैं.




पिछले पार्ट में सैफ के अलावा दीपिका पादुकोण और जॉन अब्राहम अहम किरदारों में थे. सलमान और सैफ पहले भी 1999 की रिलीज 'हम साथ साथ हैं' और 'बीवी नंबर 1' में साथ काम कर चुके हैं. सलमान अकेले खान हैं जिन्होंने अभी तक खलनायक की भूमिका नहीं की है. शाहरुख 'डर', 'बाजीगर', 'अंजाम' में खलनायक थे, आमिर खान भी 'धूम 3' मे ग्रे शेड किरदार कर चुके हैं, हालांकि सलमान को बाजीगर वाला किरदार शाहरुख से पहले ऑफर हुआ था लेकिन उस वक्त सलमान ने वो किरदार ठुकरा दिया था, देखना दिलचस्प होगा अगर अब सलमान खलनायक बनने के लिए रजामंद होंगे.





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'दंगल' को लेकर ऐसी क्या परेशानी है जो आमिर खान जमके लगाने लगे हैं कश?






आमिर खान इन दिनों बेचैनी का शि‍कार हो गए हैं इससे निजात पाने के लिए वह स्मोकिंग का सहारा ले रहे हैं. bollywoodlife.com में छपी खबर के मुताबिक आमिर खान की बेचैनी की वजह है फिल्म 'दंगल'. जी हां आपने सही सुना लेकिन आमिर खान जैसे सुलझे हुए एक्टर नर्वस हों यह बात कुछ हजम नहीं हुई.




लेकिन साइट की सूत्रों के मुताबिक, आमिर के साथ ऐसा हर बार होता है, जब भी उनकी फिल्म रिलीज होने वाली होती है. अपनी हर फिल्म के रिलीज से पेहले वह नर्वस रहने लगते हैं. ऐसा 'धूम 3', 'पीके' और फिल्म 'तलाश' के दौरान भी उनके साथ हुआ था. आमिर खान ने आखि‍री बार स्मोकिंग इस साल जनवरी में छोड़ी थी जिसके बाद उन्होंने 25 किलो वजन भी कम किया और 'दंगल' के लिए अपनी बॉडी को शेप में भी लेकर आए. अब आमिर की फिल्म 'दंगल' के प्री-रिलीज दौर से गुजर रहे हैं और ऐसे में उनकी नर्वसनेस बढ़ती जा रही है. इस बेचैनी ने उन्हें पूरी तरह से स्मोकर बना दिया है जिसके चलते वह ना जाने कितनी ही सिगरेट फूंक रहे हैं. दिन में कई बार कश लगा रहे हैं.
आमिर खान सिर्फ बेटे आजाद के सामने सिगरेट पीने से परहेज करते हैं क्योंकि आजाद को पाप आमिर का सिग्रेट पीना बिलकुल पसंद नहीं. सूत्रों की मानें तो आमिर जब भी स्मोक करते हैं तो आजाद उन्हें कमरे से बाहर जाने के लिए कह देते हैं.




'दंगल' को लेकर आमिर खान की नर्वसनेस की एक वजह सलमान खान भी माने जा रहे हैं. क्योंकि इस साल सलमान खान की रेस्ल‍िंग पर बेस्ड फिल्म 'सुल्तान' ब्लॉकबस्टर हिट साबित हुई थी. फिल्म ने कमाई के मामले में पीके को छोड़कर सभी फिल्मों के रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. इसलिए अब 'दंगल' और 'सुल्तान' की तुलना की भी खूब चर्चा हो रही है. सभी के जहन में यही सवाल है कि क्या आमिर की रेसलर की जिंदगी पर बेस्ड फिल्म क्या बॉक्स आफिस पर सलमान की सुल्तान को मात दे पाएगी. कहीं यह सब चर्चाएं हीं आमिर की बेचैनी का कारण तो नहीं...?

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शाहरुख की फिल्म 'रईस' का ट्रेलर 7 दिसम्बर को 3500 स्क्रीन्स में होगा रिलीज





शाहरुख खान अपनी आगामी फिल्म 'रईस' को लेकर सुर्खियों में हैं. अभी तक फिल्म के पोस्टर्स के अलावा फिल्म का एक ही डायलॉग प्रोमो रिलीज हुआ है जिसने दर्शकों के दिलो दिमाग में जगह बना ली है 'बनिए का दिमाग और मिया भाई की डेरिंग....वाले फिल्म के डायलॉग के बाद अब इस फिल्म के ट्रेलर रिलीज डेट की भी पुष्टि हो गई है.
'रईस' का ट्रेलर 7 दिसंबर को रिलीज होने जा रहा है इस ट्रेलर को देशभर के 3500 स्क्रीन्स में दिखाया जाएगा. यह पहला मौका होगा जब किसी भी फिल्म के ट्रेलर को इतने सारी स्क्रीन्स पर एक साथ दिखाया जाएगा. फिल्म मेकर्स ने यह बताया है कि उनका इरादा देश के हर एक शहर के सिनेमा हॉल में 'रईस' के ट्रेलर को पहुंचाना है. इसके लिए 3500 स्क्रीन्स में ट्रेलर दिखाना इसी दिशा में उनका एक प्रयास है. यही नहीं 'रईस' के लीड स्टार शाहरुख खान ट्रेलर लॉन्च के मौके पर दर्शकों के साथ रूबरू भी होंगे. बाकायदा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए वह 9 शहरों में जिसमे दिल्ली, मुम्बई, बंगलोर, हैदराबाद, कोलकाता, जयपुर, मोगा पंजाब, इंदौर और अहमदाबाद शामिल हैं के दर्शको के साथ मुलाकात करेंगे.




साल 2017 में जनवरी के आखिरी हफ्ते में रिलीज होने वाली 'रईस' में शाहरुख खान के अलावा माहिरा खान और नवाजुद्दीन सिद्दिकी मुख्य भूमिकाओं में हैं. इस फिल्म का निर्देशन नेशनल अवॉर्ड विनिंग निर्देशक राहुल ढोलकिया ने किया है. 'रईस' का निर्माण रितेश सिद्धवानी और फरहान अख्तर की एक्सेल इंटरटेंमेंट और शाहरुख- गौरी खान की रेड चिलीस इंटरटेंमेंट कर रही है.
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रिलायंस Jio का एक और धमाका, डेढ़ साल तक मुफ्त मिलेगी सर्विस!





रिलायंस जियो का ऑफर धमाका अभी तक खत्म नहीं हुआ है. टेलीकॉम इंडस्टी में सबसे सस्ती सर्विस देकर हलचल मचाने वाला रिलायंस जियो एक बार फिर से एक खुशखबरी लेकर आया है. लेकिन ये ऑफर सिर्फ लिमिडेट लोगों के लिए है. जी हां, अगर आप आई फोन यूजर हैं या फिर नया आई फोन खरीदने की सोच रहे हैं तो यह खबर आपके लिए है.
टेलिकॉम कंपनी रिलायंस जियो ने एक नई योजना के तहत घोषणा की है कि नए आईफोन के जियो की सारी सेवाएं लगभग 15 महीने तक मुफ्त मिलेंगी. कंपनी ने कहा कि उसकी यह योजना एक जनवरी 2017 से शुरू हो जाएगी.
आईफोन खरीदने वालों को जियो वेलकम ऑफर के अलावा 1 साल तक 1499 रुपये प्लान फ्री मिलेगा. रिलायंस रिटेल आईफोन लेने पर ये ऑफर दे रहा है.  




कंपनी के बयान के अनुसार इस प्लान में सभी तरह की लोकल एसटीडी कॉल, 20जीबी 4जी डेटा, रात में अनलिमिटेड 4जी डेटा, 40 जीबी वाईफाई डेटा और जियो एप पर खरीदारी भी मुफ्त मिलेगी.
फिलहाल कंपनी की सारी सेवाएं दिसंबर 2016 तक सभी ग्राहकों के लिए फ्री हैं. कंपनी का कहना है कि उसकी यह पेशकश नए आईफोन6, आईफोन 6 एस , आईफोन एस प्लस, आईफोन एसई, आईफोन7 व आईफोन 7प्लस सभी के लिए होगी.





नोटबंदी से तेल, बेसन और आटे की कीमतों में आया उछाल






नोटबंदी की मार अब आपके किचन पर भी पड़ सकती है. दरअसल 500 और 1000 के नोटों का चलन बंद होने की घोषणा के बाद खाद्य पदार्थों के दामों में अचानक तेजी से उछाल आया है. पिछले 15 दिनों में गेंहू के आटे, तेल और बेसन के दामों में बढ़ोतरी होने से आम आदमी का बजट बिगड़ गया है.
कैश की दिक्कत से छुटकारा अभी मिला ही नहीं था कि लोगों के सामने खाने-पीने के चीजों के दाम में आई तेजी ने मुश्किलें बढ़ादी. हालात ये हैं कि एक तो महीने भर का राशन खरीदने के लिए लोगों के पास नई करंसी नहीं हैं और जो थोड़ा बहुत कैश एटीएम की लंबी कतारों और बैंक में लगने के बाद लोगों को मिल भी रहा है, वो खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों की भेंट चढ़ रहा है.




खुदरा बाजार के व्यापारियों के मुताबिक आटें, तेल और चने की कीमतों में तेजी से उछाल आया है. गेंहू के आटे के दाम में प्रति किलो 5 से 6 रुपये की बढ़ोतरी हुई है. तो वहीं चने का दाम भी अचानक दोगुना हो गया, जिसकी वजह से चना दाल और बेसन के दामों में भी तेजी आई है. पिछले महीने 60-70 रुपये प्रति किलो मिलने वाला बेसन नोटबंदी के बाद 140 रुपये किलो बिक रहा है.
रिफाइंड और सरसों तेल के दामों में 5 से 10 रुपये प्रति किलो उछाल देखने को मिल रहा है. मैदा भी नोटबंदी के बाद महंगे खाद्य पदार्थों की सूची शामिल हो गया है. खुदरा व्यापारियों की मानें तो नोटबंदी के बाद लोग महीने भर का राशन लेने के बजाए छोटी-छोटी जरूरी चीजें ही खरीद रहे हैं. इससे व्यापारियों का भी कामकाज ठप्प है. वहीं लोग कैश की किल्लत के बीच खाने-पीने की चीजें महंगी होने से परेशान हैं.




दरअसल नोटबंदी के बाद एक तरफ ट्रांसपोर्ट्स का कारोबार ठप्प है तो वहीं जमाखोरी भी बढ़ गई हैं. ऐसे में जिस तेजी से खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़े हैं. उससे कयास लगाए जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में महंगाई आम आदमी के घर का बजट बिगाड़ सकती है.

11 बजे 'मन की बात' करेंगे PM मोदी, नोटबंदी पर कर सकते हैं चर्चा


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रविवार को सुबह 11 बजे रेडियो पर 'मन की बात' कार्यक्रम के माध्यम से देश को संबोधित करेंगे. 'मन की बात' कार्यक्रम का ये 26वां प्रसारण होगा.
पीएम मोदी रेडियो पर हर महीने के आखिरी रविवार को इस कार्यक्रम के जरिए अलग-अलग मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं. मन की बात कार्यक्रम के इस संस्करण में पीएम मोदी नोटबंदी पर जनता से अपने विचार साझा कर सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने जनता से नोटबंदी पर सुझाव भी मांगे थे.
इससे पहले 31 अक्टूबर को मन की बात में पीएम मोदी ने सरहद पर तैनात सेना के जवानों की सराहना की थी.
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यूथ को लुभाने के लिए पीएम मोदी करेंगे 'युवाओं के मन की बात'





हर महीने के आखिरी रविवार को 'मन की बात' करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब 'युवाओं के मन की बात' शुरू करने वाले हैं. सूत्रों के अनुसार, पीएम उत्तर प्रदेश और अन्य चुनावी राज्यों से इसकी शुरुआत कर सकते हैं.




'युवाओं के मन की बात' वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए की जाएगी. इसमें युवाओं से जुड़े मसलों पर बातचीत होगी, जिसमें रोजगार भी होगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तक 25 बार 'मन की बात' कार्यक्रम से देश को संबोधित कर चुके हैं. पीएम मोदी रेडियो पर हर महीने के आखिरी रविवार को इस कार्यक्रम के जरिए अलग-अलग मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं.




मोदी जी, कश्मीरी युवा पाकिस्तान के साथ जाने से खौफ खाता है उसे भारत से जुड़ने की वजह दे दीजिए

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक कश्मीरी नागरिक डॉ. लियाकत जाफरी का ख़त जो कश्मीर पर मोटी पोथियां लिखने वालों को उससे भी बड़े सबक दे सकता है






सेवा में,
श्री नरेंद्र भाई मोदी जी,
मोदी जी आदाब! काफी रोज तक सोच-विचार करने के बाद आप को एक खुला खत लिखने बैठा हूं. हो तो ये भी सकता था कि इसको निजी तौर पर लिखकर पीएम ऑफिस को पोस्ट कर देता. लेकिन आजकल आप मीडिया के जरिये ही संवाद कर रहे हैं तो यही तरीका सही लगा. नीयत ये भी है कि इंडिया की जनता भी वे बातें जाने जो मीडिया अक्सर उनको बताता नहीं.
आपको दिवाली की शुभकामनाएं देते हुए इस बात की उम्मीद करता हूं कि आप मेरे इस खत का नोटिस जरूर लेंगे.
मोदी जी, आज करीब चार महीने हो गए, कश्मीर बंद है. सड़क, चौराहे, खेल के मैदान, स्कूल, झीलें, पहाड़, बाग, रेलवे ट्रैक और एयरपोर्ट सब वीरान पड़े हैं. अगर कहीं भीड़ है तो अस्पतालों में और उन चौकों परे जहां पुलिस, सीआरपीएफ, सेना और आम कश्मीरी लड़के आमने-सामने हैं. पत्थर, पैलेट, खून, चेहरों के नकाब, मातम, कब्रें, जनाजे यहां पर प्रोटेस्ट के सबसे मजबूत प्रतीक बन चुके हैं. कश्मीर अफेयर्स देखने वाले आपके करीबी राजदार और एजेंसियों वाले आप को रोजाना रिपोर्ट देते ही होंगे. उन रिपोर्ट्स में यही लिखा रहता होगा कि आज कितने मिलिटेंट मारे गए, कितनी पुलिस चौकियां जलीं, कितने कश्मीरी लड़के मरे, कितने अंधे या जख्मी हुए. आप एक नजर फाइल पर डालकर उसे आगे बढ़ा देते होंगे. शायद दुखी होते होंगे (या नहीं भी) और फिर दुबारा किसी काम में जुट जाते होंगे.




मोदी जी, ये सिर्फ आंकड़े हैं जो हर साल घटते-बढ़ते रहते हैं. कभी बीस दिन कर्फ्यू, कभी तीन महीने, कभी 100 जवान मरते हैं कभी 120. ये आंकड़े हर नये मौसम में बस बदलते रहते हैं. डेलिगेशन आते हैं, कमीशन बैठते हैं, ट्रैक-टू डिप्लोमेसी के ठेकेदार गुश्ताबे और वाजवान डकार के वापस दिल्ली उड़ जाते हैं. नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया की ओवी वैन्स भी दिल्ली लौट जाती हैं. कश्मीर वहीं रह जाता है अपनी टीसों, चोटों और जख्मों के साथ. मीडिया वह सब बता देता है जो उन्हें पीएमओ की पीआर एजेंसी ने फीड किया होता है. इसी ढर्रे पर कुछ साल-महीने गुजरते हैं. हालात फिर वैसे के वैसे. जब तक कोई नई चिंगारी भड़क के शोला नहीं बन जाती.
मोदी जी, आपको मालूम है इस बार जो लड़के सड़कों पर हाथ में पत्थर संभाले उतरे हैं, उनकी औसत उम्र क्या है? पंद्रह से बीस साल. यानी ये वो लड़के हैं जिन्होंने कश्मीर के स्ट्रगल का वह रूप देखा ही नहीं जिससे उनके मां-बाप, बड़े-बुज़ुर्ग गुजर चुके हैं. इन्होंने बस सुना भर है कि इनके डैडी, अंकल या भाई एनकाउंटर में मारे गए थे या उनको किसी रात आर्मी उठा ले गई थी और वे कभी वापस नहीं लौटे. या फिर इंडिया के साथ जिहाद करते हुए शहीद हो गए थे.




मोदी जी, हर बात अजीत डोवाल नहीं बताते, बहुत कुछ इलाके के एसएचओ और मस्जिद के इमाम से भी जाना जा सकता है. हाथों में पत्थर उठाए, कैमरे से अपने नकाब पहने चेहरे को बचाता हुआ वह लड़का जिसे इंडिया से नफरत है, उसे गिलानी और पाकिस्तान से भी शिकायतें हैं. वह अच्छे से जानता है कि इन तीनों ताकतों ने मिलकर उसका और उसके परिवार का वक्त जाया किया है. ये तो माओं के पाले-पोसे, जीन्स पहनने वाले स्मार्ट लड़के हैं जिनके रोल-मॉडल सलमान खान, परवेज रसूल, आईएस टॉपर शाह फैसल और शाहरुख खान हैं. ये लोग अरिजीत, राहत फतेह अली और हनी सिंह के गाने सुनकर जवान हुए हैं.




मोदीे जी, आज इन लड़कों का रोल मॉडल बुरहान वानी इसलिए है क्योंकि ये जाने-अनजाने एक ऐसे मसीहा की तलाश में हैं जो इनके भविष्य को सुरक्षित करने में इनकी मदद करे. सो अबकी इन्हें इक्कीस साल के एक इंजीनियर लड़के में वह हीरो मिल गया जिसके हाथ में आईफोन की जगह चमचमाती एके-47 थी. जिसके मुजाहिद भाई को कुछ साल पहले इंडियन आर्मी ने मारा था, जो बेखौफ होकर अपने वीडियो यू-ट्यूब पर अपलोड करता था, जिसको धोखे से मारा गया. इन्हीं में दूसरा तबका वो है जो पढ़ नहीं पाया. बेरोजगार रह गया. सूमो, ऑटो, शिकारा चलाता है. संडे मार्केट में डल के किनारे सैलानियों को फिरन बेचता है.
ये वह तबका है, जो गिलानी के कैलेंडर को भी नहीं मानता. यासीन मालिक, शब्बीर शाह और उमर फारूक को (उनकी मर्जी से ही) नजरबंद रहने पे मजबूर करता है. ना किसी की सुनता है ना किसी की मानता है. इसका ना कोई लीडर है, ना इसका कोई चेहरा है. इसकी दुनिया उतनी है जितनी एंड्रॉयड मोबाइल की स्क्रीन में समाती है.
मोदी जी, इस कश्मीर के ताजा प्रोटेस्ट में शामिल हुए इन नौसेखिए जवानों के साथ कभी बात कीजिए तो ये सवालों के अजीबोगरीब आधे-अधूरे जवाब देते हैं.
मुझे इंडिया के साथ नहीं रहना.
पाकिस्तान चोर है.
पाकिस्तान जिंदाबाद.
गिलानी ने हमारा सौदा किया है.
गिलानी जिंदाबाद.
बुरहान वानी का खून जाया नहीं जाएगा.
महबूबा, उमर, आजाद ये सब दिल्ली के पिट्ठू हैं.
मोदी मुसलमानों का दुश्मन है. इसे सबक सिखाना जरूरी है.
हम छीनके लेंगे आजादी.
बस अब बहुत हो गया...अबकी बार आर या पार.




मोदी जी, इन दंगाई लड़कों का ना कोई चेहरा है, ना लीडर, ना कोई आॅफिस ना कोई स्टेज. इनमें गुस्सा है, घुटन है, प्रोटेस्ट है, जनून है. अपनों के खिलाफ, गैरों के खिलाफ, इंडिया के खिलाफ, पाकिस्तान के खिलाफ, हुर्रियत के खिलाफ. ये आइडेंटिटी क्राइसिस की मारी हुई वो नस्ल है जो कुछ महीने जेहनी तौर पर इंडिया के साथ ग्रो करती है. आईएस टॉपर शाह फैसल और क्रिकेटर परवेज रसूल को रोल मॉडल मान लेती है. दूसरे महीने पाकिस्तान से उम्मीद वाबस्ता कर लेती है. एक दिन खुदमुख्तारी का ख्वाब देखकर आजादी के गीत गाती है. दूसरे दिन बुरहान वानी की तरह बंदूक उठाकर बॉर्डर पार जाने को आमादा हो जाती है. इसको कुछ नहीं सूझता. ये इंडिया में सलमान, शाहरुख, जावेद अख्तर, आमिर खान को मिल रही मोहब्बत से खुश भी होती है तो यह भी चाहती है कि विराट कोहली को शोएब अख्तर बार-बार क्लीन बोल्ड करे. इनके मन में सचिन और अमिताभ के लिए इज्जत भी है, लेकिन इसे नुसरत और राहत की कव्वाली भी सुननी है. नए यूथ का ये रिप्रजेंटेटिव इंडियन है पर इंडियन नहीं, पाकिस्तानी है पर पाकिस्तानी नहीं, कश्मीरी है पर कश्मीरी भी नहीं...
ये पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा तो लगा सकता है, लेकिन भारत माता की जय जैसी कोई चीज इसके जेहन में नहीं है. इन सबके पास रिलायंस के जिओ का फोर-जी सिम भी है, और स्कूल की बिल्डिंग के लिए सड़क किनारे से उठाया नुकीला पत्थर भी. जिनके हाथ में पत्थर नहीं है उनके दिल में पत्थर है. आर्मी की भर्ती की दौड़ में पीछे रहने वाला, आर्मी की गाड़ी पर पत्थर फेंकने वालों में सबसे आगे है.




ये लड़के आर्मी की चौकी को घेरकर उसपर पेट्रोल बम भी फेंकते हैं, लेकिन कहीं आर्मी की गाड़ी पलट जाए तो उसमें फंसे जवानों को निकालने के लिए भी पिल पड़ते हैं. ब्लड बैंक के लिए खून भी देते हैं, और सैलाब में फंसे बिहारी को भी निकालते हैं. अमरनाथ यात्री को तब तक अपने घर में रोके रखते हैं जब तक चौक में पुलिस पर हो रहा पथराव थम ना जाए. मुहल्ले में अकेले पड़े कश्मीरी परिवार के बूढ़े का शव अपने कांधे पर श्मशान तक भी ले जाते हैं और पंडित लड़के की शादी में डांस भी करते हैं.
हर शहर-गली-मुहल्ले में देश का जवान ऐसा ही होता है, कश्मीर का भी ऐसा ही है. ये आज के मोदी के भारत में शायद नहीं रहना चाहता है. लेकिन इंडिया के करीब रहना चाहता है.
ये वो मासूम ठगा हुआ जज्बाती तबका है जिसको कुछ सूझ नहीं रहा कि आखिर उसका भविष्य क्या है? ये सबको गाली देता है. शेख अब्दुल्ला को भी. गिलानी को भी. मुफ्ती को भी. मोदी को भी. पाकिस्तान के साथ जाते हुए खौफ खाता है. आज वाले इंडिया के साथ रिलेट नहीं कर पा रहा. आजादी और अंदरूनी खुद-मुख्तारी की रूप-रेखा से कतई नावाकिफ है. इसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा. आज जबकि सारी दुनिया 2030/2040 के प्लान बना रही है, इसको यही इल्म नहीं है कि 2021 में कश्मीर की जमीनी सूरते-हाल क्या होगी?
वो इसी इंडिया में होगा?...शिट!
वो पाकिस्तान में होगा...ओह!
वो आजाद होगा... हाहाहा!
ये एक बड़ी उलझी हुई जहनी कैफियत है. पूरी नस्ल बीमार हो चुकी है. ये टिक-टिक करता हुआ एटम बम है जिसके तीन चार दावेदार निकल आये हैं. पाकिस्तान था ही, अब चाइना भी है. इसको वक्त रहते डिफ्यूज कीजिए. अबकी इसके हौसले पस्त नहीं हैं. ये लोग इंडिया से नफरत करते-करते बुहत दूर निकल आये हैं. ये सब एटॉमिक प्लांट हैं. इनकी सुनिए. इनको एड्रेस कीजिए. इज्जत और सम्मान दीजिए. ये लाड़-प्यार को तरस चुके बच्चे की तरह है. आप शायद जंग से जमीन का टुकड़ा जीत लेंगे पर इनके दिल नहीं जीत सकते. याद रखिए, जिसके पास खोने को कुछ नहीं होता वही दुनिया का सबसे घातक हथियार होता है.




मोदी जी, आप सोचते होंगे कि मैं ये खत आप ही को क्यों लिख रहा हूं. नवाज, गिलानी या महबूबा मुफ्ती को क्यों नहीं. इसलिए कि सारे इंडिया की तरह कश्मीर की नई नस्ल भी ये बात अच्छे से जानती है कि मोदी के होते कुछ भी मुमकिन है. इनको इस बात का अहसास है कि सालों बाद एक ऐसा शख्स सामने आया है जो मुश्किल फैसले लेने की हिम्मत दिखा रहा है. एक ऐसा शख्स जो बगैर हो-हल्ला किए जंगी नफरत के माहौल में भी चाय पीने के बहाने नवाज शरीफ के घर में लैंड कर जाता है.
मोदी जी, आप सैलाब के बाद लगातार महीने के महीने कश्मीर आये. आपने अपने तीज-त्यौहार यहां मनाए, सैलाब के वक्त अपनी सारी आर्मी वैली में झोंक दी. ये सब कुछ इतिहास के पन्नों में मौजूद है. इतिहास में सब महफूज रहता है. अच्छा भी, बुरा भी. आपके साथ गोधरा भी चलेगा, लाहौर भी.
लेकिन मोदी जी, इस सबके बावजूद हैरत है कि आज जब करीब चार महीने से कश्मीर बंद पड़ा है, आपने एक बार भी इन लोगों को विजिट करने की नहीं सोची. क्या आप तभी आएंगे जब आपको वोट चाहिए होंगे? फिर आपमें और फारूक अब्दुल्ला में क्या फर्क रहा?




आप का मुहब्बत भरा 140 अक्षर का एक खूबसूरत ट्वीट, सारा माहौल बदल कर रख सकता था. लेकिन आपकी उंगलियां थर-थर कांप जाती हैं.
अगर आप हमेशा यूपी, बिहार, बंगाल, पंजाब के चुनाव देखते रहेंगे तो ऐतिहासिक काम नहीं कर पाएंगे. आपने अकेले दम पर चुनाव जीता, लेकिन अब सबका सब नागपुर कर रहा है. आपकी एक स्पीच ने बलवावादी साधू-संतों-योगियों को सीन से बाहर कर दिया. गोरक्षा, घर-वापसी, लव-जिहाद सब ठिकाने लग गया आपकी एक लताड़ से. लेकिन कश्मीर पर आप खामोश क्यों हैं?
जब कौमों में आक्रोश होता है, अपनों में नाराज़गी होती है, उसे मोटे बजट और रोजगार से दूर नहीं किया जाता. प्यार और मोहब्बत का नेक नीयती भरा हाथ बढ़ाना होता है. कश्मीरी बड़ा गैरती है. वो हर रोज हजार बारह सौ की रसोई पकाता है. साल भर मार्केट बंद रखने का साहस करता है. अपने फल अपनी फसलों को साल के साल जाया जाने देता है लेकिन अपने काज का सौदा नहीं करता.
मोदी जी, आप जानते हैं बुरहान की मौत और इन सौ से ज्यादा मरने वाले लड़कों की मौत के बाद क्या हुआ?
इंडिया के साथ खड़े होने वाले मुसलमानों का एक बुहत बड़ा गैर-कश्मीरी तबका कश्मीरी के साथ चला गया. पूरे पीर पंजाल के डिस्ट्रिक्ट, चिनाब वल्ली के मुस्लिम डिस्ट्रिक्ट, जम्मू और लद्दाख के मुस्लिम बहुल डिस्ट्रिक्ट ब्लाक और तहसीलें आज कश्मीर की टोन में बात करती हैं. आखिर इंडिया का ये नुकसान क्यों हुआ? किन्होंने करवाया? जमीनी सूरत यह है कि अबकी बार, इंडिया ने वो नेशनलिस्ट मुस्लिम फोर्सेस (गुज्जर/पहाड़ी/डोगरी/कश्मीरी) भी गंवा दीं जो अभी दो साल पहले तक इंडिया के साथ हुआ करती थीं. यही वो लोग थे जिन्होंने आपकी लहर के वक्त बीजेपी को 25 सीटें जितवा के कश्मीर की हुक्मरानी का ताज दिया था. वही कारगिल, जो पाकिस्तान के साथ युद्ध के वक्त इंडियन आर्मी के साथ खड़ा था, आज कश्मीरी नौजवानों की मौत पर प्रोटेस्ट रैलियां मना रहा है. मोदी जी, आपने तेजी के साथ ग्राउंड खोया है. इंडिया के लिए ये सब अलार्मिंग है.




मोदी जी, आखिरी बात. आप सोचिए तो सही कि बीजेपी और आरएसएस से नफरत करने वाला मुसलमान आखिर अटल बिहारी वाजपेयी जी से नफरत क्यों नहीं कर पाया? कुछ तो था अटल में ऐसा जो आप में नहीं है. क्या है वो? आप अच्छे से जानते हैं. उसकी दोबारा खोज कीजिए. अपने लिए, अपने महान देश भारत के लिए. आप हिस्ट्री के बहुत खूबसूरत मोड़ पर आ खड़े हुए हैं.
आप कश्मीर को सच्चे मन से एड्रेस कीजिए. आम कश्मीरी के पास इंडिया अभी भी एक सुरक्षित विकल्प है. लेकिन वो ये वाला इंडिया नहीं है. जहां मुसलमान बात करते हुए भी खौफ खाने लगा है. जहां मुस्लिम को कदम-कदम पर एक हिंदू से प्रमाणपत्र लेना पड़े.
भारत एक देश मात्र नहीं है. जमीन का टुकड़ा नहीं है. एक हजारों साल में फैली प्यार-मुहब्बत की सभ्यता है. इसके ऐतिहासिक डिस्कोर्स को आपके हिस्से में आये ये छह-आठ वर्ष नहीं बदल सकते.
मोदी जी, मौत का यह नंगा नाच बंद करवाइए. आप कर सकते हैं. आप दंगों के जानकार हैं. आप नफरत की इस मानसिकता को समझते हैं. लगाम कसिए इन सब पर. अगर इस वक्त चूक गए तो आपका इंडिया सालों के लिए पटरी से उतर जाएगा.
जनाब, मन की बात में घंटों बोलने का क्या फ़ायदा, जब उन्ही मुद्दों पे बात ना की जाए जो आम-अवाम को राहत पहुंचा सकें. गुजरे सैलाबी दिनों में कश्मीर के दर्जनों लड़कों ने सैकड़ों लोगों को डूबने से बचाया. कुछ लड़के बहकर मर भी गए. क्या आपने कभी उन को नेशनल मीडिया में जगह दी? किसी राष्ट्रीय वीरता सम्मान से नवाजा? आप क्यों ऐसे मौके गंवा देते हैं? कैसे आम कश्मीरी आपसे रिलेट करेगा और क्यों करेगा? इंसानियत, कश्मीरियत, जम्हूरियत जैसे तमाम स्लोगन बेमानी हैं. विकास और विश्वास चुनावी नारे हैं. जुमलेबाजी तज दीजिए. आपके पास समय कम है. प्लीज हौसला कीजिए. पाकिस्तान के हाथ लगे इस सबसे बड़े पत्ते को नकारा कर सकते हैं आप. कश्मीरी को मान-सम्मान-प्यार से एड्रेस कीजिए. मुस्लिम की खोयी शिनाख्त को वापस लौटाने में अपना योगदान दीजिए. इंडिया का बाईस करोड़ मुस्लिम आपका आभारी होगा.
एक बार फिर खुशियों और रोशनियों का त्यौहार दिवाली मुबारक!
आपका आभारी
एक आम कश्मीरी
डॉ. लियाकत जाफरी
उर्दू शायर एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता, पुंछ, जम्मू




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कश्मीर घाटी के स्कूलों में यह आग कौन लगा रहा है ?

पुलिस अभी तक 21 लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है लेकिन, कश्मीर घाटी में एक-एक करके 26 से ज्यादा स्कूलों के राख होने की गुत्थी अब भी सुलझने से बहुत दूर दिखती है





पिछले दो महीनों के दौरान कश्मीर घाटी में 26 से ज़्यादा स्कूल जलाये जा चुके है. इनमें से कम से कम सात ऐसे हैं जो बिलकुल राख हो गए हैं. दो को छोड़ दें तो तकरीबन सारे सरकारी स्कूल हैं. हालात की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने बीते सोमवार को इस मुद्दे का संज्ञान लिया. उसने कहा कि जिम्मेदार अफसर शिक्षण संस्थानों की सुरक्षा के लिए प्रभावी तौर तरीकों पर विचार करें. अदालत के इस आदेश के अगले दिन ही पुलिस ने इस मामले में 12 लोगों की गिरफ्तारी का ऐलान कर दिया. लेकिन पुलिस के इस ऐलान से भी लोगों की जिज्ञासा और चिंता मिटती दिखाई नहीं दे रही.
पुलिस ने इस मामले की तह तक जाने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही है. दक्षिण कश्मीर के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस नीतीश कुमार बताते हैं, ‘अभी तक हम 21 लोगों को गिरफ्तार कर चुके हैं और लगभग उतने ही लोगों से पूछताछ जारी है.’




चार महीने से ठहरी हुई जिंदगी
कश्मीर घाटी पिछले लग भाग चार महीने से कर्फ्यू और बंद से जूझ रही है. इसकी शुरुआत हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के आठ जुलाई को सुरक्षा बलों के हाथ मारे जाने के फ़ौरन बाद हुई थी. तब से अभी तक कश्मीर में लगातार लोग सड़कों पर आकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछले चार महीनों में सुरक्षा बलों के साथ हिंसक टकराव में 90 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 15 हजार से अधिक घायल हुए हैं. पुलिस अब तक 15 हजार लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है.
स्कूलों के जलने की शुरुआत भी इन्हीं विरोधी प्रदर्शनों के बीच हो गयी थी. पहला स्कूल दक्षिण कश्मीर के कुलगाम ज़िले में अगस्त के अंत में तब जला था जब सुरक्षा बलों और स्थानीय लोगों के बीच टकराव हो रहा था. जहां पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को स्कूल जलाने का ज़िम्मेदार ठहराया वहीं लोगों का कहना था कि स्कूल में आग पुलिस के दागे हुए आंसू गैस के गोले से लगी थी. अगले एक महीने के दौरान एक के बाद एक स्कूल जलता गया और आरोप लगते रहे. हालांकि राहत की बात यह थी कि आग के ये सारे मामले आकस्मिक दिखाई पड़ रहे थे.स्थिति ने चिंताजनक मोड़ तब ले लिया जब विरोध प्रदर्शन धुंधलाते दिखाई देने लगे लेकिन, आग के मामलों का सिलसिला और धधकता गया. अब जो स्कूलों में आग लग रही है वह निश्चित रूप से आकस्मिक नहीं है.
बयानबाजी




गिरफ्तारियों को छोड़ दें तो दुर्भाग्यवश राज्य सरकार की तरफ से आग की ये वारदात रोकने के कोई ठोस प्रयास नहीं दिखे हैं. लेकिन दो चीज़ें हैं जो बहुत जोर-शोर से हो रही हैं - कड़ी निंदा और आरोप. राज्य सरकार स्कूल जलाने का जिम्मेदार आतंकवादी नेताओं को ठहरा रही है. अलगाववादी नेता राज्य सरकार को और विरोधी नेता दोनों गुटों को.
जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अध्यक्ष, यासीन मलिक ने जेल से छूटने के कुछ घंटे बाद ही कहा कि स्कूलों के जलने के लिए राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और शिक्षा मंत्री नईम अख्तर जिम्मेदार हैं. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनका कहना था, ‘जब महबूबा जी के पिता, मुफ़्ती मुहम्मद सईद, 1986 में मंदिर जलवाकर सरकार से समर्थन वापिस ले सकते थे तो उनकी बेटी अपने फायदे के लिए स्कूल क्यों नहीं जलवा सकतीं.’
राज्य सरकार ने पलट वार किया. एक लिखित बयान जारी कर नईम अख्तर ने कहा, ‘इस मामले की तह तक जाना ज़रूरी नहीं है क्योंकि यह बिलकुल साफ है कि ये हरकतें किन लोगों की हैं.’ उनका आगे कहना था, ‘ये लोग कश्मीर में दहकती आग को जलाये रखना चाहते हैं. और ये वही लोग हैं जो बैंक लूटने, गाड़ियां जलाने और लोगों को परेशान करने को प्रोत्साहन देते आ रहे हैं.’




विरोधी नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दोनों गुटों को आड़े हाथ लिया है. सरकार को यह आगज़नी रोकनी में नाकामी पर और अलगाववादी संगठनों को चुप्पी साधे रहने के लिए.
कई सिविल सोसाइटी समूहों, ट्रेड यूनियनों और अन्य संस्थाओं ने भी सरकार की आलोचना की है और ढके छिपे शब्दों में ही सही, इस सब का ज़िम्मेदार राज्य सरकार को ही ठहराया है. स्कूलों को अपनी राष्ट्रीय संपत्ति कहते हुए कश्मीर इकनॉमिक अलायन्स के अध्यक्ष, हाजी यासीन खान का कहना है कि कश्मीर आग की इन वारदातों से दहल गया है, 'कुछ लोग हैं जो ऐसी हरकतों से हमारे जनांदोलन को अस्थिर करने की कोशिश करते हैं. ऐसे लोगों को बेनकाब करना होगा.'
राजनीति से परे




बयानबाज़ी, निंदा और आरोपों से परे हकीकत यह है कि इन स्कूलों में सिर्फ उन लोगों के बच्चे पढ़ते हैं जो प्राइवेट स्कूलों की फीस नहीं दे पाते. अब उनके पास फिलहाल पढ़ने के लिए कोई जगह नहीं है. दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग ज़िले में तैनात एक सरकारी शिक्षक सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, 'जो भी यह स्कूल जला रहा है कश्मीरी लोगों का दोस्त तो होगा नहीं.'
यह आगज़नी ऐसे वक्त पर हो रही है जब कश्मीर के छात्र नवंबर में होने वाली परीक्षाओं को टाल देने की मांग कर रहे थे. यह मांग करीब चार महीने से स्कूल बंद पड़े रहने के बाद ज़ोर पकड़ रही थी. लेकिन राज्य सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और परीक्षाएं समय पर करवाने का फैसला किया है.




जाहिर है इससे लोग नाराज हैं. अनंतनाग के ये शिक्षक कहते हैं,'पैसे वाले लोगों के बच्चे ट्यूशन जैसी सुविधाएं पा सकते हैं लेकिन, इन सरकारी स्कूलों के गरीब बच्चे सिर्फ स्कूलों पर ही निर्भर रहते हैं. ये लोग बीच-बीच में स्कूल आकर अपने शिक्षकों की थोड़ी मदद ले लेते थे. अब जब स्कूल जल गया है तो ये बच्चे भी ऊपर वाले का नाम लेके ही परीक्षा में बैठेंगे. इन सब का भविष्य उज्जवल होने की बस आशा की जा सकती है.'
उधर, इन बच्चों के माता-पिता इनकी सुरक्षा को लेकर भी चिंतित हैं. कुलगाम ज़िले के ज़ाहिद अहमद कहते हैं, 'मेरा तो यह सोच सोच के बुरा हाल है कि खुदा न खास्ता परीक्षा के टाइम किसी ने स्कूल में आग लगा दी तो क्या होगा.' उनका बेटा दसवीं में पढ़ता है. अहमद कहते हैं कि राज्य सरकार की परीक्षा समय पर कराने की जिद कहीं उनके बच्चे को न ले डूबे.




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देश में सात लाख लोगों के लिए मैला ढोना छोड़ना इतना मुश्किल क्यों है?

23 साल से गैरकानूनी होने के बावजूद आज भी देश भर में लगभग सात लाख लोग रोजाना अपने सर पर मैला ढोने को मजबूर हैं





‘इस नरक में रहना ही हमारी मजबूरी है. एक बार फैसला किया था कि दोबारा यह गंदा काम नहीं करेंगे. लेकिन हालात ऐसे बन गए कि आखिरकार हमें इसी नरक में लौटना पड़ा.’ आंखों में आंसू लिए जब टीकमगढ़ की रहने वाली माया बाई ये कहती हैं तो अपने साथ उन तमाम औरतों की भी बेबसी बयान करती हैं जिन्हें आज भी सिर पर मानव-मल ढ़ोने का अमानवीय काम करना पड़ रहा है.
मध्यप्रदेश से गुजरते आगरा–मुंबई राष्ट्रीय राजमार्ग पर इंदौर से करीब 50 किमी दूर टोंक कला नाम का एक गांव है. यहां रहने वाली रेखा बाई बताती हैं, ‘2004 में हमारे जिले में ‘गरिमा यात्रा’ शुरू हुई थी. तब सैकड़ों औरतों ने मैला ढोने का काम छोड़ने का फैसला कर लिया था. कुछ तो अब भी अपने उस फैसले पर कायम हैं लेकिन हम जैसी कई बदनसीबों को वापस इसी काम में लौटना पड़ा.’




इसका कारण बताते हुए वे कहती हैं, ‘काम बंद करते ही हमारे बच्चों को छात्रवृत्ति (सरकारी अस्वच्छक वृत्ति) मिलना बंद हो गई. पति ने बाहर खेतों पर मजदूरी करने नहीं जाने दिया तो आखिर घर कैसे चलता. ऐसी नौबत आ गई थी कि घर में राशन खरीदने के भी पैसे नहीं थे. कई दिनों तक सिर्फ कोरा चावल उबालकर बच्चों को दिया और खुद कई रात भूखे सोए. हमारे पास कमाने के लिए न तो कोई जमीन का टुकडा है और न ही कोई नौकरी-धंधा. काम छोड़ने पर कुछ औरतों को ऋण मिला, कुछ को आंगनवाडी में नौकरी और कुछ को जमीन का पट्टा. लेकिन कई दिनों के इंतज़ार के बाद भी जब हमें इसमें से कुछ नहीं मिला तो मजबूरन मैला ढ़ोने का काम ही दोबारा शुरू करना पड़ा.’
देवास जिले के बरोठा गांव की रहने वाली सुमित्रा बाई की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. उन्होंने यह काम छोड़ने के बाद बैंक से लोन लेकर साड़ी और बच्चों के कपड़ों की दुकान शुरू की थी. लेकिन स्थानीय लोग उनकी दुकान पर सामान खरीदने ही नहीं आते थे. तीन महीने तक इंतज़ार के बाद भी जब कोई ग्राहक नहीं आया तो हारकर उन्होंने इंदौर के एक व्यापारी को ही सारे कपड़े तीन हजार रूपये का घाटा खाकर लौटा दिए. अब सुमित्रा बाई फिर अपने पुराने काम पर लौट आई हैं.




2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि अब भी देश के कुल 18 करोड़ घरों में से 1.86 लाख में ऐसे शौचालय हैं जिनकी सफाई दलितों को करनी पड़ रही है
एक तरफ देश में शौचालयों और स्वच्छता पर बातें हो रही हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार लोगों से ‘स्वच्छ भारत’ के लिए एकजुट होने का आह्वान कर रहे हैं. लेकिन दूसरी तरफ आज भी दलित वर्ग की सैकड़ों औरतें दबंग परिवारों का मानव मल अपने सिर पर ढोने को मजबूर हैं. आज भी ऐसा अमानवीय कार्य करने को अभिशप्त इन महिलाओं पर कितने अत्याचार हो रहे हैं, यह दमोह जिले के बतियागढ़ गांव की लक्ष्मी बाई की बातों से समझा जा सकता है.
‘हमारी जिंदगी जानवरों से भी बदतर है. इस घृणित काम के लिए हमें सिर्फ चंद पैसे और रोज़ की एक रोटी मिलती है. यह रोटी भी हमें दूर से फेंककर दी जाती है. हमें कहीं भी छूने की अनुमति नहीं है. यहां तक कि मंदिर–मस्जिद से भी हमें दूर रखा जाता है’ लक्ष्मी बाई कहती हैं.
मानव मल ढोने का जो काम ये तमाम औरतें आज भी कर रही हैं, कानून की किताबों में उसे आज से 23 साल पहले ही प्रतिबंधित किया जा चुका है. 1993 में केंद्र सरकार ने क़ानून पारित कर हाथ से सफाई और सूखा शौचालय निषेध क़ानून बनाया था. इस कानून में ऐसा काम करवाने पर एक साल की सजा और दो हजार रूपये के जुर्माने की भी व्यवस्था है. लेकिन देशभर में कैसे इस क़ानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, वह ऊपर लिखी महिलाओं की आपबीती से स्पष्ट हो जाता है.




2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि अब भी देश के कुल 18 करोड़ घरों में से 1.86 लाख में ऐसे शौचालय हैं जिनकी सफाई दलितों को करनी पड़ रही है. इनमें सबसे ज़्यादा - 63713 - महाराष्ट्र में हैं. पंजाब में ऐसे घरों की संख्या 11949, मध्यप्रदेश में 23093 और कर्नाटक में 15375 है. इतनी बड़ी तादाद में अब भी कच्चे शौचालयों का होना यह साबित करता है कि कड़े कानूनों के बाद भी सिर पर मैला ढोने की रवायत आज भी बड़े पैमाने पर जारी है. एक अनुमान के अनुसार आज भी देशभर में सिर पर मैला ढोने वालों की संख्या लगभग सात लाख है.
विभिन्न राज्य सरकारें अपने यहां मैला ढोने की बात को कम करके आंकती रही हैं. अब इसके सही आंकड़ों की पड़ताल के लिए केंद्र सरकार एक सर्वे करवा रही है. यह सर्वे गांवों के साथ शहरी क्षेत्रों में भी होगा. इसके साथ ही मैला ढ़ोने के इस काम पर रोक लगाने के लिए भारत सरकार ने कुछ और कदम भी उठाए हैं. केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है और एक निगरानी समिति का भी गठन किया गया है. इस समिति में बिहार के सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक और गरिमा अभियान से जुड़े मध्यप्रदेश के आसिफ को भी सदस्य बनाया गया है.
13 हजार की आबादी वाले इस कस्बे में जब किरण पथरोड़, बेबीबाई और सेवंतीबाई ने इस काम को करने से इंकार कर दिया तो इलाके में हडकंप मच गया
गैरसरकारी स्तर पर भी इस तरह के प्रयास होते रहे हैं. साल 2003-04 में देवास जिले के कुछ गांवों की औरतों ने सिर पर मैला ढोने से इनकार करना शुरू किया था. तब ‘जन साहस’ नाम की संस्था ने कुछ अन्य संगठनों के साथ मिलकर ‘गरिमा अभियान’ शुरू किया था. इसके जरिये पीढ़ियों पुराने इस काम के दलदल से लोगों को बाहर निकालने की शुरुआत हुई. मध्यप्रदेश के देवास, होशंगाबाद, हरदा, शाजापुर, मंदसौर और पन्ना सहित तेरह जिलों के गावों में ही तीन हजार से ज़्यादा औरतें इस अभियान से जुडीं. लेकिन यह काम आसान बिलकुल भी नहीं था.
‘हमारे कार्यकर्ता गांव-गांव जाते, दलित वाल्मीकि तथा मुस्लिम जाति के हैला परिवारों से बातचीत करते लेकिन कोई भी हमारे साथ आने को तैयार ही नहीं होता था. हमसे पहला ही सवाल यह पूछा जाता था कि मैला उठाना छोड़ देंगे तो खाएंगे क्या?’ आसिफ कहते हैं, ‘लोगों को यह भी लगता था कि जिन परिवारों का मैला वे पीढ़ियों से उठाते आ रहे थे, उनसे अचानक वे इनकार कैसे कर सकते हैं!’




अभियान को पहली बड़ी सफलता देवास जिले के भौंरासा कस्बे में मिली. 13 हजार की आबादी वाले इस कस्बे में जब किरण पथरोड़, बेबीबाई और सेवंतीबाई ने इस काम को करने से इंकार कर दिया तो इलाके में हडकंप मच गया. ऊंची जाति के लोगों ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया. पहले धमकियां और फिर प्रलोभन भी दिए गए लेकिन ये तीनों टस से मस नहीं हुई. इनका पानी बंद कर दिया गया, ताने कसे गए और तरह-तरह से इन्हें जलील करने की कोशिशें हुई. इनके परिवारों के आदमियों पर भी दबाव बनाया गया. लेकिन फिर भी ये तीनों औरतें इस धंधे में नहीं लौटी.
यह बात जब आसपास के गांवों तक पंहुची तो वहां की औरतों में भी उम्मीद जगी. गरिमा अभियान इसी उम्मीद के सहारे खड़ा हो गया. औरे गांव के चौक–चौपालों पर प्रतीक के तौर पर मैला ढोने की टोकरियां और झाड़ू जलाई जाने लगीं.
इस तरह के अभियान उस तबके के एक छोटे से हिस्से को ही प्रभावित कर पाये हैं जो आज भी इस अमानवीय काम को करने के लिए मजबूर है. आसिफ बताते हैं कि गरिमा अभियान अब तक करीब 1800 लोगों को ही मैला ढोने से मुक्ति दिला सका है. जैसा कि ऊपर दिये गये उदाहरणों से स्प्ष्ट है कि कई लोगों को मजबूरी में अपने पुराने काम की ओर लौट जाना पड़ा. इनमें से कइयों को सरकारी योजनाओं का अपेक्षित लाभ नहीं मिला तो कुछ को पुनर्वास के लिए जिन जमीनों के पट्टे आवंटित किये गए थे उनपर दबंगों का कब्जा था या वे जमीनें पथरीली थीं.
क्या ऐसा हो सकता है कि तेलंगाना में सारे कच्चे शौचालयों को लोग खुद ही साफ करते हों! या फिर मध्य प्रदेश में एक व्यक्ति दूर-दूर तक फैले 1093 कच्चे शौचालयों का मैला अकेले ढोता हो!
मैला ढोने के काम को समाप्त करने की मुहीम से जुड़े लोग मानते हैं कि इसे तब तक पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक इन लोगों के पुनर्वास के लिए कोई ठोस पहल नहीं की जाती. लेकिन अभी तो स्थिति यह है कि सरकार के पास इन लोगों की कुल संख्या के सटीक आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं.
स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसी साल जुलाई में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने विभिन्न राज्यों के साथ एक बैठक की थी. इस बैठक में राज्यों को अपने यहां के कच्चे शौचालयों और उनका मैला ढोने वालों का आंकड़ा आयोग के साथ साझा करना था. लेकिन जो आंकड़े राज्यों ने दिये उन पर भरोसा करना मुश्किल है.




उदाहरण के तौर पर तेलंगाना में कच्चे शौचालय तो 1.57 लाख थे लेकिन मैला ढोने वाला एक भी नहीं. मध्य प्रदेश की बात करें तो राज्य सरकार के दिये आंकड़े कहते हैं कि यहां कच्चे शौचालयों की संख्या 39362 है लेकिन इनका मैला ढोने का काम सिर्फ 36 लोग ही करते हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 4392 कच्चे शौचालयों को साफ करने का काम सिर्फ तीन लोग ही करते हैं.
क्या ऐसा हो सकता है कि तेलंगाना में सारे कच्चे शौचालयों को लोग खुद ही साफ करते हों! या फिर मध्य प्रदेश में एक व्यक्ति दूर-दूर तक फैले 1093 कच्चे शौचालयों का मैला अकेले ढोता हो!
ऐसे में यह उम्मीद करना कि सरकार मैला ढोने का काम करने वालों का प्रभावी पुनर्वास कर सकती है, फिलहाल तो दूर की कौड़ी ही नज़र आता है.
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