मार्क्सवादियों की हर बात न भी मानें तो भी उनके इस कथन में दम है कि शासक वर्ग की विचारधारा ही जनता की विचारधारा बन जाती है. इसी कारण सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष सबसे पहले विचारधारात्मक संघर्ष होता है. शासक वर्ग हमेशा ही अपनी शक्ति जनता से ग्रहण करता है. ज़ोर-ज़बरदस्ती अपना दबदबा बनाने से कहीं ज़्यादा वह जनता को अपने सत्य को स्वीकार कराने की जुगत में लगा रहता है.
इसलिए नोम चोम्स्की कह रहे हैं कि सत्य अगर किसी को बताने की जरूरत है तो जनता को है. सत्ता के मुख पर सत्य बोलना वैसे भी एक मुहावरा है. इसका अर्थ यह नहीं कि बोलने वाला सत्ता से मुख़ातिब है. वह आम तौर पर जनता से ही ऐसी बात करता है जो सत्ता को नागवार गुज़रती है. ऐसा कहने से एक साहसी कृत्य का चित्र उभरता है.
जनता के साथ सच्ची बात करने में भी साहस की दरकार है, और धीरज की भी. कबीर ने इसी समस्या से जूझते हुए कहा होगा, ‘साधो, देखो जग बौराना. सांच कहे तो मारन धावे, झूठे जग पतियाना.’ सच कहने पर लोग मारने को दौड़ें और झूठे की वकालत करें, यह कोई नई बात नहीं और न किसी एक ही प्रकार की सामाजिक परिस्थिति का परिणाम.
ट्रम्प अगर अपने वादे पर काम न करें तो विपक्ष को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें पाखंडी और झूठा कहना चाहिए? क्या ऐसा करके जो अवधारणाएं ट्रंप चुनाव के वक्त रख रहे थे उन्हें सच नहीं बताया जा रहा है?




लेकिन सत्य की राह की एक मुश्किल और है: सत्य जैसी किसी वस्तु पर ही संदेह पैदा कर देना. कि कोई एक सत्य नहीं है, इसलिए हमें किसी एक सत्य की खोज भी नहीं करनी है, सिर्फ़ प्रतियोगी सत्यों में से अपना चुन लेना है. प्रताप भानु मेहता ने पिछले दिनों दिल्ली में एक व्याख्यान में इस परिघटना की तरफ़ ध्यान दिलाया.
प्रताप जब यह बोल रहे थे, ख़ुद को दुनिया का सबसे पुराना जनतंत्र कहने वाला देश डॉनल्ड ट्रम्प को अपना राष्ट्रपति चुन चुका था. चुनाव के नतीजे आते ही बहस इस पर होने लगी कि ट्रम्प ने चुनाव प्रचार में जो वादे किए हैं, उनपर अमल करने में उनकी कितनी तत्परता होगी! ट्रम्प अगर अपने वादे पर काम न करें तो विपक्ष को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें पाखंडी और झूठा कहना चाहिए? क्या ऐसा करके जो अवधारणाएं ट्रंप चुनाव के वक्त रख रहे थे उन्हें सच नहीं बताया जा रहा है?
इस प्रश्न को ठीक से समझने के लिए क़रीब से उदाहरण लें. राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने वायदा किया कि वह बाबरी मस्जिद की जगह पर ही राम मंदिर बनवाएगी. इस वायदे के ज़ोर पर वह 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अन्य मित्र संगठनों के माध्यम से लाखों लोगों को अयोध्या लाने और मस्जिद को ढहाने में कामयाब हुई. तब से अब तक, मस्जिद गिर जाने के बाद भी मंदिर नहीं बन सका.
भारतीय जनता पार्टी के विरोधियों की इस पर प्रतिक्रिया यह है कि वह झूठ बोल रही थी, वह पाखंडी है, उसका इरादा मंदिर बनाने का था ही नहीं, वग़ैरह. ऐसा करके वे जनता की निगाह में उसकी साख भले गिरा दें, मस्जिद की जगह मंदिर के सत्य पर प्रकारांतर से मुहर ही लगा रहे हैं. साथ ही, वे मस्जिद गिराए जाने के कृत्य का औचित्य भी प्रदान कर रहे हैं.
उसी तरह जब आज की सरकार को यह ताना दिया जाने लगा कि उसके नेता ने जिस काले धन को ज़ब्त करके हर किसी के खाते में पंद्रह लाख रुपए भर देने का वायदा किया था, वह कहां है तो वे काला धन की सतही और ग़लत समझ को अपनी स्वीकृति दे रहे थे. उस गलत समझ के आधार पर कही गई बातों को सच बना रहे हैं.
एक सत्य की जगह मेरा और तुम्हारा सत्य की स्थिति तभी टिकती है जब नैतिकता का भी कोई एक स्वीकृत पैमाना नहीं रह जाता. फिर लोगों को आवेश में लाकर या उत्तेजित करके अपनी तरफ़ लाने के लिए झूठ बोला जा सकता है




यह वैसा ही है, जैसे भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए लोकपाल के इलाज पर सबका सहमत हो जाना. लोकपाल कहां है, कहकर अरविंद केजरीवाल या भाजपा की खिल्ली उड़ाते हुए लोकपाल होना चाहिए, यह तो हम कह ही रहे होते हैं, यानी कि इसमें उनके इस दावे की स्वीकृति है कि लोकपाल भ्रष्टाचार का कारगर इलाज है.
अगर यह कहा जाए कि अगर तुम्हारा एक सच है तो एक हमारा भी है, तो दोनों ही बराबर हो जाते हैं, और उनकी प्रामाणिकता के लिए उन दोनों से बाहर किसी स्थिर कसौटी की खोज भी अप्रासंगिक हो जाती है. फिर नैतिकता जैसी अवधारणा भी बेकार हो उठती है. फिर हर सत्य सिर्फ़ एक बयान है, और एक तरह से बकवास भी.
एक सत्य की जगह मेरा और तुम्हारा सत्य की स्थिति तभी टिकती है जब नैतिकता का भी कोई एक स्वीकृत पैमाना नहीं रह जाता. फिर लोगों को आवेश में लाकर या उत्तेजित करके अपनी तरफ़ लाने के लिए झूठ बोला जा सकता है. यह राजनैतिक रूप से अनैतिक नहीं है, यह मान लेने के बाद सत्य की कोई सत्ता या आवश्यकता भी नहीं रह जाती.
सत्य और नैतिकता के प्रति बेपरवाही या लापरवाही देर तक रहने पर सत्य को पहचानने में अशक्तता भी आ जाती है. इस कमज़ोरी या अस्वास्थ्यकर स्थिति से कैसे उबरें? इसका उत्तर सरल नहीं. एक जवाब यह हो सकता है कि आप लोगों को सत्य की सत्ता के प्रति सजग रखें. सत्य के प्रति सजगता का यह अभियान दुष्कर है लेकिन इसीलिए आवश्यक भी है. लेकिन इसमें कोई भी गफ़लत अगर इस दौर को लंबा कर दे तो उससे उबरना भी उतना ही कठिन होता जाता है. इसलिए जब असत्य अपनी आक्रामकता के पहले चरण में हो तभी उसके तात्कालिक लाभ के लोभ का समावर्तन करते हुए उसका मुक़ाबला करने की ज़रूरत होती है, यानी असत्य को पांव जमाने ही न दें.
दुर्भाग्य से हमारा इतिहास में इस प्रकार की नैतिक तत्परता के उदाहरण नहीं के बराबर हैं. मसलन, बोल्शेविक क्रांति के पहले चरण में ही गोर्की उसकी हिंसा के विरुद्ध चेतावनी दे रहे थे. बाद में तात्कालिक सामाजिक लाभ के तर्क के सहारे उसे निरस्त कर दिया गया, वे ख़ुद ख़ामोश हो गए. रूस उसकी क़ीमत अब तक चुका रहा है.