भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करते हुए जिस दिन यह कहा कि ‘भाजपा जातिवाद की राजनीति नहीं करती, बल्कि पॉलिटिक्स ऑफ परफॉरमेंस करती है’ ठीक उसी दिन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे राजपूत समाज के मंत्रियों की बैठक ले रही थीं. देश के राजनैतिक इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है जब किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने जाति के आधार पर मंत्रियों के साथ बैठकें की हों. भारतीय राजनीति में जाति के आधार पर उम्मीदवार तय करना और जातिगत संतुलन के हिसाब से मंत्री बनाने का सिलसिला तो पुराना है, लेकिन इस तर्ज पर मंत्रियों की बैठक पहली बार हो रही है.




दरअसल, आगामी 13 दिसंबर को वसुंधरा सरकार को तीन साल पूरे हो जाएंगे. हालांकि चुनाव दो साल बाद होंगे, लेकिन मुख्यमंत्री ने इसके लिए तैयारियां अभी से शुरू कर दी हैं. सूत्रों के अनुसार जाति के आधार मंत्रियों के साथ बैठकें करने के पीछे उनका मकसद राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण जातियों में सरकार की छवि का आकलन करना है. इस कवायद के अलावा भी कई स्तरों पर फीडबैक लिया जा रहा है. माना जा रहा है कि जाति के पैमाने पर हो रहे इस सियासी मंथन से ही मंत्रिमंडल में फेरबदल की रूपरेखा तैयार होगी. उल्लेखनीय है कि राजस्थान के सियासी गलियारों में पिछले छह महीने से मंत्रिमंडल में फेरबदल की अटकलें लगाई जा रही हैं. अब सरकार की तीसरी वर्षगांठ के तुरंत बाद मंत्रिमंडल विस्तार की चर्चा है.




जाति की जाजम पर लगे मंत्रियों के इस मजमे पर कांग्रेस ने कड़ी आपत्ति जताई है. पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं, ‘जाति के आधार पर मंत्रियों की बैठकें लेना संविधान व लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है. इससे प्रदेश का राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचा जातीय आधार पर बंटेगा, जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे.’ इस सवाल पर कि मुख्यमंत्री को जातिगत आधार पर मंत्रियों की बैठकें लेने की जरूरत क्यों पड़ी, गहलोत कहते हैं कि ‘भारी बहुमत से सत्ता में आई राज्य की भाजपा सरकार नाकारा और निकम्मी है. इस सरकार से लोगों को जो आशाएं व अपेक्षाएं थी, उन पर पानी फिर गया है. प्रदेशवासी आज बहुत परेशान और आक्रोशित हैं. इसलिए हार से बचने के लिए जाति का कार्ड खेलने की कोशिश की जा रही है.’
2003 के विधानसभा चुनाव में वसुंधरा ने खुद को ‘राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन’ के रूप में प्रचारित कर जातीय समीकरणों को बखूबी अपने पक्ष में किया था
कांग्रेस ही नहीं, भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी भी इस मुद्दे पर मुखर हैं. वे कहते हैं कि ‘संविधान में किसी भी मंत्री की शपथ का आधार जाति या धर्म नहीं होता. और प्रदेश सरकार को बहुमत जाति के आधार पर नहीं बल्कि विकास करने के लिए मिला था. प्रदेश की केवल 12 जातियों के मंत्रियों से मिलकर मुख्यमंत्री ने बाकी बची 488 जातियों का अपमान किया है. इससे जहां जातीय वैमनस्य बढऩे की संभावना को बल मिलेगा, बल्कि राज्य की जनता में मंत्रियों का प्रभाव भी कम होगा.’




हालांकि भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी अशोक गहलोत और घनश्याम तिवाड़ी के आरोपों से इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं कि ‘न तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जाति की राजनीति करती हैं और न ही भाजपा. यदि ऐसा होता तो मैं आज प्रदेशाध्यक्ष नहीं होता. हमारी सरकार और पार्टी सर्वसमाज का प्रतिनिधित्व करती है और सबको साथ लेकर चलती है.’ इस सवाल पर कि फिर जाति के आधार पर मंत्रियों की बैठकों का क्या औचित्य है, परनामी कहते हैं कि ‘मुख्यमंत्री के साथ मंत्रियों की अनौपचारिक मुलाकात को आप बैठक नहीं कह सकते. मंत्रिमंडल की बैठक में हमेशा सभी मंत्री शामिल होते हैं.’ हालांकि जब अशोक परनामी को यह बताया गया कि जातिगत आधार पर मंत्रियों की बैठकों के बाकायदा आदेश जारी हुए हैं तो उन्होंने यह कहकर इस बात को टाल दिया कि मुझे इस बारे में जानकारी नहीं है.




भले ही भाजपा प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी स्वीकार नहीं करें, लेकिन वसुंधरा राजे पूर्व में भी जाति का कार्ड खेलती रही हैं. 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने खुद को ‘राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन’ के रूप में प्रचारित कर जातीय समीकरणों को बखूबी अपने पक्ष में किया था. गौरतलब है कि राजपूत, जाट और गुर्जर मतदाता प्रदेश के 70 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक स्थिति में हैं.
अपने इस कार्यकाल में भी वसुंधरा राजे ने जातिगत समीकरणों को साधने के कई जतन किए हैं. उनके मंत्रिमंडल में अभी 26 मंत्री हैं, जो 12 जातियों से ताल्लुक रखते हैं. इनमें सर्वाधिक प्रतिनिधित्व राजपूतों का है तो दूसरा नंबर जाटों का हैं. बाकी जातियों की भी सियासी भागीदारी के हिसाब से हिस्सेदारी है. वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी कहते हैं कि ‘वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति में जाति के महत्व और मिजाज को अच्छी तरह समझती हैं. उनके राज में उम्मीदवारों के चयन, मंत्रिमंडल और राजनैतिक नियुक्तियों में जाति का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. यदि कोई इससे इंकार कर रहा है तो वह या तो झूठ बोल रहा है या उसे राजनीति की समझ नहीं है.’




एक ओर जातीय समीकरणों को साधने के लिए पद बांटे जा रहे हैं तो दूसरी ओर इनकी वजह से अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी परहेज किया जा रहा है
वसुंधरा सरकार की ओर से की गई राजनैतिक नियुक्तियों में भी जाति की छाया साफ तौर पर देखी जा सकती है. डॉ. दिगंबर सिंह और प्रो. सांवरलाल जाट की नियुक्तियां इसकी पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है. डॉ. दिगंबर को बीस सूत्री कार्यक्रम (बीसूका) की राज्य स्तरीय समिति का उपाध्यक्ष बनाकर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है. दिगंबर भाजपा के पक्ष में चली जबरदस्त लहर में भी चुनाव नहीं जीत पाए थे. पार्टी ने उन्हें उप-चुनाव में भी उम्मीदवार बनाया, लेकिन वहां भी उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. एक साल में दो विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद दिगंबर सिंह को इसलिए ओहदा दिया गया ताकि वे जाटों में पार्टी की पकड़ बरकरार रख सकें.




प्रो. सांवरलाल जाट को राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष बनाना भी राजनैतिक रूप से जाटों को साधने की कवायद का हिस्सा है. अजमेर से सांसद सांवरलाल केंद्र की मोदी सरकार में राज्यमंत्री थे, लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटा दिया गया. हालांकि उनकी जगह नागौर सांसद सीआर चौधरी को मंत्री बनाया गया, लेकिन जाटों का बड़ा तबका प्रो. सांवरलाल को हटाने से नाराज था. इन्हें संतुष्ट करने के लिए उन्हें राजस्थान किसान आयोग का अध्यक्ष बनाकर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है. गौरतलब है कि सांवरलाल सांसद बनने से पहले राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री थे.




एक ओर जातीय समीकरणों को साधने के लिए पद बांटे जा रहे हैं तो दूसरी ओर इनकी वजह से अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी परहेज किया जा रहा है. भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी पिछले दो साल से खुद की ही सरकार के विपक्ष की भूमिका में हैं. वे अपनी पार्टी के कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो रहे, लेकिन एकाएक नए संगठन के तौर पर खड़ी की गई दीनदयाल वाहिनी के बैनर तले पूरे प्रदेश में सत्ता और संगठन को चुनौती दे रहे हैं. तिवाड़ी भाजपा के वरिष्ठ विधायक हैं. कई बार मंत्री रहने के बावजूद वसुंधरा ने इस बार उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया, जिससे वे नाराज हैं.




सूत्रों के अनुसार घनश्याम तिवाड़ी के खिलाफ अनुशासनात्क कार्रवाई करने से पार्टी नेतृत्व इसलिए घबरा रहा है, क्योंकि इससे ब्राह्मणों के नाराज होने का खतरा है. उनके कार्यक्रमों में अच्छी भीड़ आ रही है और उन्हें पार्टी के अन्य नेताओं का भी अंदरुनी समर्थन है. पिछले दिनों विधायक ज्ञानदेव आहूजा तो उनके समर्थन में खुलकर बोल चुके हैं. सूत्रों के अनुसार तिवाड़ी खुद चाहते हैं कि उनके ऊपर कार्रवाई हो ताकि उन्हें और सहानुभूति मिले. वे किरोड़ी लाल मीणा और हनुमान बेनिवाल के साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बनाने की तैयारी में भी जुटे हैं. लेकिन जातिगत समीकरणों के चलते वसुंधरा उनके खिलाफ कुछ भी करने से बचती रही हैं.